कुंडलिनी शक्ति का पूर्ण रहस्य ।
कुंडलिनी शक्ति का पूर्ण रहस्य ।
कुण्डलिनी की सर्वत्र व्याख्या एक ऐसी शक्ति की रूप में की गयी है जिसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती | यह सर्वशक्तिमान की अधिष्ठात्री शक्ति है | मानव जीवन का दुर्लभतम वरदान है यह जिसको साध लेने से जन्म-जन्मान्तर के भाव-बंधन टूट जाते हैं |
समस्त विश्वव्यापी संसार में जो अनंत-कोटि ब्रह्माण्ड हैं, उनकी यात्रा, इसी मानव शरीर में कराती हुई, अंत में जब यह परात्पर पुरुष के वाम भाग में विराजती है तो मनुष्य की चेतना अपने पूर्णतम विकास को प्राप्त करती है अर्थात अपने आत्म स्वरुप में ही अवस्थित हो जाती हैं |
नाड़ी चक्र:
लेकिन कुण्डलिनी तंत्र को समझने से पहले नाड़ी चक्र के विज्ञान को समझना अनिवार्य है | मानव-शरीर में नाड़ियों की संख्या बहत्तर हज़ार बतायी गयी है | ये नाड़ियाँ पेड़ के पत्तों की अतिसूक्ष्म शिराओं की भांति शरीर में रहती हैं | ये नाड़ियाँ, मनुष्य शरीर में, लिंग से ऊपर और नाभि के नीचे के स्थान (जिसे मूलाधार भी कहते हैं) से निकल कर पूरे शरीर में व्याप्त हैं |
इन बहत्तर हज़ार नाड़ियों में भी बहत्तर नाड़ियाँ प्रमुख हैं | ये सभी नाड़ियाँ, चक्र के समान शरीर में स्थित होकर शरीर तथा शरीर में स्थित पाँचों प्रकार की वायु (प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान) का आधार बनी हुई हैं | इन बहत्तर नाड़ियों में भी दस नाड़ियाँ प्रधान हैं जिनके नाम-इड़ा, पिन्गला, सुषुम्ना, गान्धारी, हस्तिजिव्हा, पूषा, यशस्विनी, अलम्बुषा, कुहू और शन्खिनी हैं |
इन दस नाड़ियों में भी प्रथम तीन नाड़ियाँ इड़ा, पिन्गला और सुषुम्ना विशेष महत्व की हैं जो प्राणवायु के मार्ग में स्थित हैं | शरीर के मेरुदंड के वाम भाग में या बाएं नासारंध्र (नाक) में इड़ा और दायीं तरफ (दाहिनी नाक में) पिन्गला नाड़ी है | मेरुदंड के बीचोबीच सुषुम्ना नाड़ी है | इन तीनों ही नाड़ियों में प्राणवायु बहती है |
इसके अतिरिक्त बायीं आँख में गांधारी, दाहिनी आँख में हस्तिजिव्हा, दायें कान में पूषा, बाएं कान में यशस्विनी, मुख में अलम्बुषा, लिंग में कुहू, और गुदा में शन्खिनी स्थित है | शरीर के दस द्वारों पर ये दस नाड़ियाँ स्थित हैं | इनमे इड़ा नाड़ी में चन्द्र, पिन्गला नाड़ी में सूर्य तथा सुषुम्ना में अग्नि देवता स्थित हैं |
जो लोग इड़ा (चन्द्र), और पिंगला (सूर्य) नाड़ी से प्राणवायु का अभ्यास, स्वरोदय शास्त्र के अनुसार, निरंतर करते हैं उनकी दृष्टि त्रैकालिक होने लगती है यानी उन्हें भविष्य का भान होने लगता है | इन नाड़ियों के स्वर से शुभ-अशुभ, किसी कार्य के सिद्ध होने या बेकार जाने का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है | स्वरोदय-शास्त्र में इनकी विस्तार से चर्चा है |
शुभ कर्म में चन्द्र या इड़ा नाड़ी का चलना तथा रौद्र कर्म में सूर्य या पिन्गला नाड़ी का चलना अच्छा माना जाता है | इड़ा नाड़ी चलने का अर्थ है बायीं नाक से श्वाँस का चलना और पिंगला नाड़ी चलने का अर्थ है दाहिनी नाक से श्वाँस का चलना | किस समय कौन सी नाड़ी चल रही है इसका अनुभव आप अपनी नासिका छिद्रों के पास अपनी अँगुलियों को ले जाकर कर सकते हैं |
इन नाड़ियों के चलने का क्रम इस प्रकार से है- शुक्ल पक्ष में पहले तीन दिन तक चन्द्र नाड़ी चलती है | इसके बाद तीन दिन तक सूर्य नाड़ी चलती है | फिर उसके बाद तीन दिन तक चन्द्र नाड़ी और उसके बाद तीन दिन सूर्य नाड़ी चलती है | इसी क्रम से शुक्लपक्ष में नाड़ी सञ्चालन होता है | इसी प्रकार से कृष्णपक्ष में पहले तीन दिन दाहिनी नाड़ी यानी सूर्य-स्वर का उदय होता है उसके बाद चन्द्र नाड़ी का | इसी प्रकार से प्रत्येक दिन इन नाड़ियों का क्रमबद्ध उदय एवं अस्त होता है | इन समस्त नाड़ियों का सञ्चालन करने वाली शक्ति ही कुण्डलिनी शक्ति है |
कुण्डलिनी शक्ति: कुण्डलिनी शक्ति मूलाधार चक्र के नीचे, सर्प की भांति, साढ़े तीन कुंडली मार कर सोई हुई है | कहते हैं कि यह सोई हुई कुण्डलिनी शक्ति जब पहली बार जागती है तो शरीर में भूकंप सा अहसास होता है यद्यपि प्रत्येक साधक के अपने स्वतंत्र निजी अनुभव हो सकते हैं लेकिन शरीर उस समय विचित्र पीड़ा के दौर से गुजरता है- एक ऐसा अनुभव जैसा पहले कभी ना हुआ हो |
इसीलिए योगाचार्यों ने कहा है कि बिना सुयोग्य गुरु की देखरेख में कुण्डलिनी जगाने का प्रयास नहीं करना चाहिए | निरंतर साधना एवं अभ्यास से जब कुण्डलिनी जागती है तो वह ऊपर की तरफ उठती है | उस समय सुषुम्ना नाड़ी, प्राणवायु के लिए राजपथ बन जाती है | जैसे एक राजा, राजमार्ग से, अपने पूरे ऐश्वर्य के साथ निकलता है, वैसे ही प्राणवायु, सुषुम्ना नाड़ी में सुखपूर्वक बहती है |
उस समय चित्त यानि मन निरालम्ब हो जाता है और योगी को किसी भी प्रकार का भय नहीं रह जाता | तंत्रशास्त्रों में सुषुम्ना नाड़ी की बहुत महिमा बखान की गयी है | इसे शून्य पदवी, ब्रह्मरन्ध्र, महापथ, श्मशान, शाम्भवी, मध्यमार्ग आदि नाम दिए गए हैं | कुण्डलिनी के जागरण में महामुद्रा का विशेष विधान है | इस महामुद्रा को आदिनाथ आदि महासिद्धों ने प्रकट किया था |
इस महामुद्रा से पञ्च महाक्लेष –अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, और अभिनिवेश रुपी शोक-मोह आदि नष्ट हो जाते हैं | जागने के बाद, जब कुण्डलिनी शक्ति ऊपर की तरफ उठती है तो सारे चक्र खिल जाते हैं, ब्रह्म ग्रंथि, विष्णु ग्रंथि, और रूद्र ग्रंथि खुल जाती हैं तथा शरीर में स्थित षट्चक्र पूर्ण विकसित होते हुए खुल जाते हैं |
षट्चक्र: शरीर के मेरुदंड के भीतर, ब्रह्मनाड़ी में अनेक चक्रों की कल्पना की गयी है लेकिन मुख्य रूप से छह चक्र होते हैं | इन छह चक्रों के नाम- मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञा चक्र हैं तथा इनके स्थान क्रमशः योनि, लिंग, नाभि, ह्रदय, कंठ और भ्रूमध्य है |
इन छह चक्रों के अलावा एक सातवां चक्र होता है जिसे सहस्रार चक्र कहते हैं यह चक्र मष्तिष्क में पीछे की तरफ़, सबसे ऊपर होता हैं | यहीं पर परात्पर पुरुष, सहस्त्रों पंखुड़ियों वाले कमल पर बैठा है | आदि शंकराचार्य के सौन्दर्यलहरी के अनुसार कुण्डलिनी शक्ति का जागरण, ब्रह्मरंध्र (सुषुम्ना नाड़ी) में स्थित छह चक्रों का भेदन करके किया जा सकता है |
हमारी शरीर को प्रभावित, प्रारंभ के पाँच चक्र (मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्ध) ही करते हैं | उनके अधिपति क्रमशः पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु, और आकाश हैं | आज्ञाचक्र महतत्त्व
(The Great Grand Matter) से संचालित और मन यानि संस्कारों को प्रभावित करने वाला है |
सुयोग्य गुरु सर्वप्रथम योग, प्राणायाम, ध्यान और साधना के माध्यम से शिष्य के इन छह चक्रों का भेदन करता है | इसकी शुरुआत मूलाधार चक्र से होती है | प्रत्येक चक्र के भेदन पर शिष्य को विस्मित और चकित कर देने वाली सिद्धियाँ प्राप्त होती जाती हैं |
मूलाधार_चक्रमूलाधार चक्र:
सौन्दर्यलहरी में आदि शंकराचार्य कहते हैं कि मूलाधार चक्र में स्थित कुण्डलिनी शक्ति को सावित्री भी कहते हैं | इसकी आराधना करने वाला यानि इस चक्र का भेदन करने वाला साधक ऐश्वर्यवान बनता है क्योंकि इस अखिल विश्व-ब्रह्माण्ड का वैभव इसी शक्ति-युग्म के हाँथ सन्निहित है |
स्वाधिष्ठान चक्र: मूलाधार चक्र के ऊपर स्वाधिष्ठान चक्र आता है | स्वाधिष्ठान चक्र में रूद्र ही अग्नि बनकर निवास करते हैं | इस चक्र का भेदन करने से साधक पञ्च-विद्याओं में निष्णात हो जाता है | वो अपने स्थूल और सूक्ष्म शरीर में व्याप्त समस्त दैहिक और दैविक दोषों को नष्ट करने में सक्षम हो जाता है |
मणिपूरक चक्र: स्वाधिष्ठान चक्र के ऊपर मणिपूरक चक्र आता है | मणिपूरक चक्र की साधना करते हुए इस चक्र का भेदन करने वाला साधक उस दिव्य शक्ति के साथ अपना सम्बन्ध बना लेता है जो उसकी मनस्विता, तेजस्विता और समर्थता की दिव्य ज्योति को विश्व आकाश में बिजली की तरह चमकाती है अर्थात प्रकाशित करती है | सबसे बड़ी बात इस चक्र का भेदन करने पर साधक काम-बीज का रहस्य जान लेता है और काम-बीज का रहस्य जान लेने से उसके लिए सांसारिक सुखों की कमी नहीं रहती |
अनाहत चक्र: मणिपूरक चक्र के बाद अनाहत चक्र आता है | अनाहत चक्र को भेदने से साधक में नीर-क्षीर विवेक कर सकने की क्षमता का विकास हो जाता है अर्थात अनुचित का त्याग और उचित को ग्रहण कर सकने की स्वाभाविक प्रवृत्ति का विकास हो जाता है | इस प्रकार से वह हंस जैसा धवल और ब्राह्मी शक्ति का वाहन बन सकने की पात्रता प्राप्त करता हुआ अठारह विद्याओं में निपुण एवं निष्णात बन जाता है | दरअसल सूक्ष्मदृष्टि से देखें तो पात्रता के आभाव से ही मनुष्य को आभावग्रस्त और असफल रहना पड़ना है |
विशुद्ध चक्र: विशुद्ध चक्र के बारे में शंकराचार्य कहते हैं कि विशुद्ध चक्र में स्वच्छ स्फटिक जैसे शिव के साथ उनकी कार्य शक्ति के रूप में निवास करने वाली तुम महाशक्ति को नमस्कार है | यह संसार तुम्हारी ही ज्योति से, अज्ञानरूपी अंधकार से छुटकारा पा कर आनंदित होता है | इस चक्र का भेदन करने वाले साधक के ह्रदय में निरंतर आनंद और उल्लास की अनुभूति होती रहती है मानो उसने परम आनंद की प्राप्ति कर ली हो | ऐसे व्यक्ति का केवल सामीप्य आपको प्राप्त हो जाय तो हमेशा उसी के सानिध्य की इच्छा बनी रहेगी |
आज्ञा चक्र: ब्रह्मरंध्र में स्थित पंचों चक्रों का भेदन करता हुआ साधक जब छठें चक्र यानी आज्ञा चक्र का भेदन करता है तो उसकी दिव्य दृष्टि जागृत हो जाती है | शंकर जी की तरह कामदेव को जला देने में समर्थ अग्नि रूप तीसरा नेत्र भृकुटी स्थान में स्थित आज्ञा चक्र ही तो है | दिव्य ज्ञान की समस्त भूमिकाएं इसी केंद्र से उपजती हैं | अधोस्थान में जननेंद्रिय मूल में पड़ी हुई इस महाशक्ति को उबार कर जो इस आज्ञाचक्र के शीर्ष स्थान तक पहुंचा देता है, वह साधक धन्य हो जाता है |
सहस्रार चक्र: इन सब चक्रों के ऊपर, मनुष्य शरीर के कपाल के उर्ध्व भाग में स्थित सहस्रार चक्र के बारे में शंकराचार्य जी कहते हैं कि “विद्युतधारा की तरह इन छह चक्रों से होती हुई, ऊपर सहस्रार कमल में तुम जा विराजती हो | सूर्य, चन्द्र और अग्नि (इड़ा, पिंगला, और सुषुम्ना) तुम्हारी कला पर आश्रित हैं | मायातीत जो परात्पर महापुरुष हैं, तुम्हारी ही आनंदलहरी में स्नान करते हैं” |
इन छह चक्रों के भेदन के दौरान प्राणवायु, ब्रह्मरंध्र अर्थात सुषुम्ना नाड़ी में ही गति करता है | इन छहों चक्रों के भेदन के पश्चात गुरु अपने साधक शिष्य से वो साधना करवाता जो उस महासर्पिणी, परमशक्ति कुण्डलिनी को जागृत करती है |
षट्चक्र भेदन एक तरह से कुण्डलिनी शक्ति के महापथ का निर्माण है | एक बार जब कुण्डलिनी शक्ति जागती है तो ब्रह्मरंध्र में, षट्चक्रों से होती हुई, विदुत गति से सीधा सहस्रार में जा मिलती है | ऐसा होना उस मनुष्य के जीवन के साथ-साथ इस ब्रह्माण्ड की भी दुर्लभतम घटनाओं में एक होता है क्योंकि यह पराशक्ति का उस परात्पर पुरुष से मिलन है जो एक मनुष्य शरीर द्वारा संभव होता है |
ऐसा होते ही उस मनुष्य का कपाल एक तेज़ और गंभीर आवाज के साथ फटता है, उसका ब्रह्मांडीय शरीर अपनी पूर्ण विकसित अवस्था को प्राप्त करता हुआ उस सत-चित-आनंद को प्राप्त होता है जिसे साकार ब्रह्म के उपासक सायुज्य मोक्ष और निराकार ब्रह्म के उपासक कैवल्य मोक्ष के रूप में जानते हैं |
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1. मूलाधार चक्र :
यह शरीर का पहला चक्र है। गुदा और लिंग के बीच चार पंखुरियों वाला यह 'आधार चक्र' है। 99.9% लोगों की चेतना इसी चक्र पर अटकी रहती है और वे इसी चक्र में रहकर मर जाते हैं। जिनके जीवन में भोग, संभोग और निद्रा की प्रधानता है, उनकी ऊर्जा इसी चक्र के आसपास एकत्रित रहती है।
मंत्र : लं
चक्र जगाने की विधि : मनुष्य तब तक पशुवत है, जब तक कि वह इस चक्र में जी रहा है इसीलिए भोग, निद्रा और संभोग पर संयम रखते हुए इस चक्र पर लगातार ध्यान लगाने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है। इसको जाग्रत करने का दूसरा नियम है यम और नियम का पालन करते हुए साक्षी भाव में रहना।
प्रभाव : इस चक्र के जाग्रत होने पर व्यक्ति के भीतर वीरता, निर्भीकता और आनंद का भाव जाग्रत हो जाता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए वीरता, निर्भीकता और जागरूकता का होना जरूरी है।
2. स्वाधिष्ठान चक्र-
यह वह चक्र है, जो लिंग मूल से चार अंगुल ऊपर स्थित है, जिसकी छ: पंखुरियां हैं। अगर आपकी ऊर्जा इस चक्र पर ही एकत्रित है तो आपके जीवन में आमोद-प्रमोद, मनोरंजन, घूमना - फिरना और मौज-मस्ती करने की प्रधानता रहेगी। यह सब करते हुए ही आपका जीवन कब व्यतीत हो जाएगा आपको पता भी नहीं चलेगा और हाथ फिर भी खाली रह जाएंगे।
मंत्र : वं
कैसे जाग्रत करें : जीवन में मनोरंजन जरूरी है, लेकिन मनोरंजन की आदत नहीं। मनोरंजन भी व्यक्ति की चेतना को बेहोशी में धकेलता है। फिल्म सच्ची नहीं होती लेकिन उससे जुड़कर आप जो अनुभव करते हैं वह आपके बेहोश जीवन जीने का प्रमाण है। नाटक और मनोरंजन सच नहीं होते।
प्रभाव : इसके जाग्रत होने पर क्रूरता, गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि दुर्गणों का नाश होता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए जरूरी है कि उक्त सारे दुर्गुण समाप्त हो तभी सिद्धियां आपका द्वार खटखटाएंगी।
3. मणिपुर चक्र :
नाभि के मूल में स्थित रक्त वर्ण का यह चक्र शरीर के अंतर्गत मणिपुर नामक तीसरा चक्र है, जो दस कमल पंखुरियों से युक्त है। जिस व्यक्ति की चेतना या ऊर्जा यहां एकत्रित है उसे काम करने की धुन-सी रहती है। ऐसे लोगों को कर्मयोगी कहते हैं। ये लोग दुनिया का हर कार्य करने के लिए तैयार रहते हैं।
मंत्र : रं
कैसे जाग्रत करें : आपके कार्य को सकारात्मक आयाम देने के लिए इस चक्र पर ध्यान लगाएंगे। पेट से श्वास लें।
प्रभाव : इसके सक्रिय होने से तृष्णा, ईर्ष्या, चुगली, लज्जा, भय, घृणा, मोह आदि कषाय-कल्मष दूर हो जाते हैं। यह चक्र मूल रूप से आत्मशक्ति प्रदान करता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए आत्मवान होना जरूरी है। आत्मवान होने के लिए यह अनुभव करना जरूरी है कि आप शरीर नहीं, आत्मा हैं। आत्मशक्ति, आत्मबल और आत्मसम्मान के साथ जीवन का कोई भी लक्ष्य दुर्लभ नहीं।
4. अनाहत चक्र-
हृदय स्थल में स्थित स्वर्णिम वर्ण का द्वादश दल कमल की पंखुड़ियों से युक्त द्वादश स्वर्णाक्षरों से सुशोभित चक्र ही अनाहत चक्र है। अगर आपकी ऊर्जा अनाहत में सक्रिय है, तो आप एक सृजनशील व्यक्ति होंगे। हर क्षण आप कुछ न कुछ नया रचने की सोचते हैं। आप चित्रकार, कवि, कहानीकार, इंजीनियर आदि हो सकते हैं।
मंत्र : यं
कैसे जाग्रत करें : हृदय पर संयम करने और ध्यान लगाने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है। खासकर रात्रि को सोने से पूर्व इस चक्र पर ध्यान लगाने से यह अभ्यास से जाग्रत होने लगता है और सुषुम्ना इस चक्र को भेदकर ऊपर गमन करने लगती है।
प्रभाव : इसके सक्रिय होने पर लिप्सा, कपट, हिंसा, कुतर्क, चिंता, मोह, दंभ, अविवेक और अहंकार समाप्त हो जाते हैं। इस चक्र के जाग्रत होने से व्यक्ति के भीतर प्रेम और संवेदना का जागरण होता है। इसके जाग्रत होने पर व्यक्ति के समय ज्ञान स्वत:ही प्रकट होने लगता है। व्यक्ति अत्यंत आत्मविश्वस्त, सुरक्षित, चारित्रिक रूप से जिम्मेदार एवं भावनात्मक रूप से संतुलित व्यक्तित्व बन जाता हैं। ऐसा व्यक्ति अत्यंत हितैषी एवं बिना किसी स्वार्थ के मानवता प्रेमी एवं सर्वप्रिय बन जाता है।
5. विशुद्ध चक्र-
कंठ में सरस्वती का स्थान है, जहां विशुद्ध चक्र है और जो सोलह पंखुरियों वाला है। सामान्यतौर पर यदि आपकी ऊर्जा इस चक्र के आसपास एकत्रित है तो आप अति शक्तिशाली होंगे।
मंत्र : हं
कैसे जाग्रत करें : कंठ में संयम करने और ध्यान लगाने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है।
प्रभाव : इसके जाग्रत होने कर सोलह कलाओं और सोलह विभूतियों का ज्ञान हो जाता है। इसके जाग्रत होने से जहां भूख और प्यास को रोका जा सकता है, वहीं मौसम के प्रभाव को भी रोका जा सकता है।
6. आज्ञाचक्र :
भ्रूमध्य (दोनों आंखों के बीच भृकुटी में) में आज्ञा चक्र है। सामान्यतौर पर जिस व्यक्ति की ऊर्जा यहां ज्यादा सक्रिय है तो ऐसा व्यक्ति बौद्धिक रूप से संपन्न, संवेदनशील और तेज दिमाग का बन जाता है। लेकिन वह सब कुछ जानने के बावजूद मौन रहता है। इसे बौद्धिक सिद्धि कहते हैं।
मंत्र : ऊं
कैसे जाग्रत करें : भृकुटी के मध्य ध्यान लगाते हुए साक्षी भाव में रहने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है।
प्रभाव : यहां अपार शक्तियां और सिद्धियां निवास करती हैं। इस आज्ञा चक्र का जागरण होने से ये सभी शक्तियां जाग पड़ती हैं और व्यक्ति एक सिद्धपुरुष बन जाता है।
7. सहस्रार चक्र :
सहस्रार की स्थिति मस्तिष्क के मध्य भाग में है। अर्थात जहां चोटी रखते हैं। यदि व्यक्ति यम, नियम का पालन करते हुए यहां तक पहुंच गया है तो वह आनंदमय शरीर में स्थित हो गया है। ऐसे व्यक्ति को संसार, संन्यास और सिद्धियों से कोई मतलब नहीं रहता है।
कैसे जाग्रत करें :
मूलाधार से होते हुए ही सहस्रार तक पहुंचा जा सकता है। लगातार ध्यान करते रहने से यह चक्र जाग्रत हो जाता है और व्यक्ति परमहंस के पद को प्राप्त कर लेता है।
प्रभाव : शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण विद्युतीय और जैवीय विद्युत का संग्रह है। यही मोक्ष का द्वार है।
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